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प्र क्षोद॑सा॒ धाय॑सा सस्र ए॒षा सर॑स्वती ध॒रुण॒माय॑सी॒ पूः । प्र॒बाब॑धाना र॒थ्ये॑व याति॒ विश्वा॑ अ॒पो म॑हि॒ना सिन्धु॑र॒न्याः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra kṣodasā dhāyasā sasra eṣā sarasvatī dharuṇam āyasī pūḥ | prabābadhānā rathyeva yāti viśvā apo mahinā sindhur anyāḥ ||

पद पाठ

प्र । क्षोद॑सा । धाय॑सा । स॒स्रे॒ । ए॒षा । सर॑स्वती । ध॒रुण॑म् । आय॑सी । पूः । प्र॒ऽबाब॑धाना । र॒थ्या॑ऽइव । या॒ति॒ । विश्वाः॑ । अ॒पः । म॒हि॒ना । सिन्धुः॑ । अ॒न्याः ॥ ७.९५.१

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:95» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:19» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अब प्रसङ्गसङ्गति से सरस्वती देवी विद्या को वर्णन करते हैं, जिसकी प्राप्ति से पुरुष कर्मयोगी और ज्ञानयोगी बनते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (सरस्वती) यह निघण्टु २।२३।५७ में वाणी के नामों में पढ़ा है, इसलिए सरस्वती यहाँ विद्या का नाम है। व्युत्पत्ति इसकी इस प्रकार है, “सरो ज्ञानं विद्यतेस्या असौ सरस्वती” जो ज्ञानवाली हो, उसका नाम सरस्वती है। सरस्वती विद्या (धरुणम्) सब ज्ञानों का आधार है (आयसी) ऐसी दृढ़ है कि मानों लोहे की बनी हुई है, (पूः) सब प्रकार के अभ्युदयों के लिए एक पुरी के सदृश है, (प्र, क्षोदसा) अज्ञानों के नाश करनेवाले (धायसा) वेग से (सस्रे) अनवरत प्रवाह से संसार को सिञ्चन कर रही है, (एषा) यह ब्रह्मविद्यारूप (प्र, बाबधाना) अत्यन्त वेग से (रथ्या, इव) नदी के समान (याति) गमन करती और (महिना) अपने महत्त्व से (सिन्धुः) स्यन्दन करती हुई (विश्वा, अपः) सब जलों को ले जानेवाली (अन्याः) और है ॥१॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यों ! ब्रह्मविद्यारूपी नदी सब प्रकार के अज्ञानादि पाप-पङ्कों को बहा ले जाती है और यही नदी भुवनत्रय को पवित्र करती अर्थात् अन्य जो भौतिक नदियें हैं, वे किसी एक प्रदेश को पवित्र करती हैं और यह सबको पवित्र करनेवाली है, इसलिए इसकी उनसे विलक्षणता है। तात्पर्य यह है कि यह विद्यारूपी नदी आध्यात्मिक पवित्रता का संचार और भौतिक नदी बाह्य पवित्रता का संचार करती है। कई एक टीकाकारों ने सरस्वती शब्द के वास्तविक अर्थ को न समझ कर यहाँ भौतिक नदी के अर्थ किये हैं। उन्होंने अत्यन्त भूल की है, जो निघण्टु में ५७ प्रकार के वाणी के अर्थों में रहते हुए भी सरस्वती शब्द को एक जल-नदी के अर्थों में लगा दिया। इस प्रकार की भारी भूलों के भर जाने से ही वेदार्थ कलङ्कित हो रहा है। अस्तु, सरस्वती शब्द से यहाँ ब्रह्मविद्यारूपी ग्रहण है। मालूम होता है कि वेद के ऐसे गूढ़ स्थलों को न समझने से ही भारतवर्ष में नदियों की पूजा होने लग गयी ॥१॥
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आर्यमुनि

अथ सरस्वतीपदवाच्याया ब्रह्मविद्याया गुणा उपदिश्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः - (सरस्वती) सरस्वती विद्या (धरुणम्) अखिलज्ञानाधारास्ति (आयसी) लोहमिव दृढा चास्ति (पूः) अभ्युदये च नगरीव (प्र, क्षोदसा) अज्ञाननाशकेन (धायसा) वेगेन (सस्रे) सततप्रवाहेण संसारं सिञ्चतीव (एषा) इयं ब्रह्मविद्यात्मिका (प्र, बाबधाना) अत्यन्तवेगेन (रथ्या, इव) नदीव (याति) गच्छति तथा (महिना) स्वमहिम्ना (सिन्धुः) स्यन्दमाना (विश्वा, अपः) सर्वजलानां नेत्री (अन्याः) इतरास्ति ॥१॥